नर हो , ना निराश करो मन को , कुछ काम करो , कुछ काम करो |
जग में रह कर कुछ नाम करो , यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमे यह व्यर्थ न हो , नर हो , ना निराश करो मन को|
संभलो की सुयोग न जाय चला , कब व्यर्थ हुआ सदुपय भला |
समझो जग को न निरा सपना ,पथ आप प्रशस्त करो अपना |
अखिलेश्वर है अवलंबन को , नर हो , ना निराश करो मन |
जल- तुल्य निरंतर शुध्ह रहो , प्रबलानल ज्यो अनिरुद्ध रहो |
पवानोपम सत्कृति - शील रहो ,अवनि- तल - वृत धृति- शील रहो |
कर लो नभ सा शुची जीवन को , नर हो , ना निराश करो मन को |
जब है तुममे सब तत्त्व यहाँ , फिर जा सकता वह सत्व कहा ?
तुम स्वत्व सुधा रस-पान करो , उठके अमरत्व विधान करो |
दव रूप रहो भव-कानन को ,नर हो , ना निराश करो मन को |
निज गौरव का नित ज्ञान रहे , "हम भी कुछ है" यह ध्यान रहे |
सब जाए अभी पर मान रहे ,मरणोत्तर गुंजित गान रहे |
कुछ हो न तजो निज साधन को ,नर हो , ना निराश करो मन को |
प्रभु ने तुमको कर दान किये , सब वांछित वास्तु विधान किये |
तुम प्राप्त करो उनको न अहो , फिर है किसका यह दोष कहो ?
समझो न अलभ्य किसी धन को ,नर हो , ना निराश करो मन को |
किस गौरव के तुम योग्य नहीं , कब कौन तुम्हे सुख भोग्य नहीं ?
जन हो तुम भी जगदीश्वर के , सब हे जिसके अपने घर के |
फिर दुर्लभ क्या उसके मन को ? नर हो , ना निराश करो मन को |
करके विधि -वाद न खेद करो , निज लक्ष्य निरंतर भेद करो |
बनता बस उद्यम ही विधि है , मिलती जिस से सुख की निधि है |
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को ,नर हो , ना निराश करो मन को |
-मैथिली शरण गुप्त
No comments:
Post a Comment